“दो शब्द”
“बाबा तो ब्रह्म रुप है, वे नहिं देखें दोय,
जैसी जाकि भावना, तैसो ही फल होय”
“दो शब्द”
“बाबा तो ब्रह्म रुप है, वे नहिं देखें दोय,
जैसी जाकि भावना, तैसो ही फल होय”
छः चीजें अनादि हैं जिनका जन्म नहीं होता, ब्रह्म, माया, ईश्वर, जीव, इनका आपस में संबन्ध और इनका भेद । ब्रह्म अनादि अनन्त है जिसका न जन्म होता है और न ही नाश । किन्तु शेष पांच माया, ईश्वर, जीव, इनका आपस में संबन्ध और अभेद इनका जन्म तो नहीं होता किन्तु नाश हो जाता है। चूंकि ब्रह्मा, विष्णु, शिव की आयु शास्त्रों में लिखी हुई है। जैसे अन्धेरे का जन्म तो नहीं होता किन्तु उसका नाश हो जाता है। अतः पांच चीजें अनादि शांत हैं। बाबा का तथा वेदों का ऐसा मत है। अतः ये ५ चीजें केवल भासित ही होती हैं और ज्ञान के पश्चात नष्ट हो जाती हैं। जैसे आकाश अनादि काल से नीला और तम्बू की तरह से टिका हुआ दिखाई देता है। किन्तु ज्ञान के पश्चात आकाश न नीला है और न ही टिका हुआ है। ऐसे ही यह जगत यह देह दिखाई तो देता है किन्तु कहीं भी मिलता नहीं। जैसे बचपन दिखाई दिया किन्तु अब वह पाता ही नहीं।
इसी भान्ति से हम देखते हैं कि स्वामी जी का शरीर दिखाई तो देता है, किन्तु वे कहते हैं दीखते हुए भी देखने वाला ही मैं हूँ जैसे आभूषण दीखते भी सोना ही है। इसलिये पुस्तक में भिन्न भिन्न बोली दिखाई पड़ती हैं, किन्तु सभी लोग एक ही बोली बोल रहे हैं कि इस देह रुपी जगत को जैसे भी नचाता है यह देखने वाला चेतन ब्रह्म ही नचाता है। यह जीव जैसी भावना बनाता है वैसा ही बाबा का स्वरुप दीखने लगता है।
“देह दीखते भी चेतन है”
बाबा जी के आशीर्वाद व अनुकम्पा को प्राप्त कर व बलविन्द्र वीर जी द्वारा प्रेरित करने पर और आप सब के अनुपम सहयोग से मैंने यह पुस्तक लिखने की कोशिश की है। मेरा पुस्तक लिखने का यह प्रथम अवसर है और मुझे कोई पूर्व अनुभव भी नहीं। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर मैंने आप सब से अपने अपने अनुभव लिखने की प्रार्थना की थ । भी पत्र मुझे प्राप्त हुये और उन्हें ही मैं अपनी समझ से अल्प स एक रुप दे पाया हूँ । यात्राओं और ज्योतिष कार्य में व्यस्त रहते हये बस थोड़ा सा समय इस कार्य को दे पाया हूँ। अल्प समय होते हुये भी मेरा यह प्रयास कितना सफ़ल हुआ है या कोई अन्य सुझाव कृपया जरुर दें ताकि भविष्य में वह सुधार कर सकूँ।
स्वामी जी से जुड़े हुये व्यक्तिगत अनुभवों को भेजने के लिये मैं आप सब का आभार व्यक्त करता हूँ विशेषतयः सर्व श्री मोती लाल वोरा जी (सांसद), कंवर करण सिंह जी (विधायक दिल्ली), नसीब सिंह जी (विधायक दिल्ली), स्वामी संतोषानन्द जी जिन्होंने रुग्णावस्था की परवाह न करते हुये भी प्रेरणा दी, चौधरी दया राम जी (भाई), खेम बिहारी जी (आत्मज), आर. के. उपाध्याय जी (उप-परिवहन आयुक्त, वाराणसी), राजन लाला जी, विनोद कृष्ण लोहिया जी (बुलन्दशहर), दीपक कोछर जी (कानपुर) आदि । पुस्तक लिखने में सहयोग के लिये श्री बलविन्द्र जी के विशेष योगदान के लिये पुनः आभार प्रकट करता हूँ। अन्त में मैं महाराज जी की पुस्तक लिखने की अनुकम्पा का अनन्य अनुगृहीत हूँ आपने मुझे यह पुस्तक लिखने का सर्वश्रेष्ठ अवसर दिया इस लिये मैं सदा कृतज्ञ रहूँगा।
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