“ भेद पंच की बुद्धि नसावै। अद्वय अमल ब्रह्म दरशावै।। भव मिथ्या मृगतृषा समाना।अनुलव इमि भाषत नहिं आना। सो गुरु दे अदभुत उपदेशा। छेदक शिखा न लुंचित केशा।।
भगवान कृष्ण के जन्म से पूर्व कंस के आतंक से पृथ्वी पर र मचा हआ था। धर्म की हानि हो रही थी जो कंस के मन में नीति या अनीति जाने बिना वह कार्य करता। पिता उग्रसेन को में डाल राज्य खुद करने लगा।
छः चीजें अनादि हैं जिनका जन्म नहीं होता, ब्रह्म, माया, ईश्वर, जीव, इनका आपस में संबन्ध और इनका भेद । ब्रह्म अनादि अनन्त है जिसका न जन्म होता है और न ही नाश । किन्तु शेष पांच माया, ईश्वर, जीव…
जिस प्रकार भगवान कृष्ण ने उग्रसेन जी को गद्दी पर बिठाया स्वयं सभी कार्य एक कुशल राजनीतिज्ञ, योद्धा व कूटनीतिज्ञ हो सम्भाले और सदा उन कार्यों को करते दीखते लेकिन स्वयं सदा उन से निलेप रहे ।
ब्रह्म को जान लेने के बाद ज्यों देह दीखते हुये भी चेतन हो जाता है वैसे ही पारस के छूने से तलवार सोने की होकर भी अपना रूप, गुण और कार्य नहीं भूलती। इसी प्रकार पारस रुपी स्वामी जी के संसर्ग…
“ भेद पंच की बुद्धि नसावै। अद्वय अमल ब्रह्म दरशावै।। भव मिथ्या मृगतृषा समाना।अनुलव इमि भाषत नहिं आना। सो गुरु दे अदभुत उपदेशा। छेदक शिखा न लुंचित केशा।।
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“दो शब्द”
“बाबा तो ब्रह्म रुप है, वे नहिं देखें दोय,
जैसी जाकि भावना, तैसो ही फल होय”
छः चीजें अनादि हैं जिनका जन्म नहीं होता, ब्रह्म, माया, ईश्वर, जीव, इनका आपस में संबन्ध और इनका भेद । ब्रह्म अनादि अनन्त है
प्रस्तावना
सन्तों का इस धराधाम पर आगमन लोक कल्याण के लिए होता है। उनकी प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय होता है। “जीवन का परम लक्ष्य -परमानन्द की प्राप्ति तथा दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति तथा इस के ज्ञान का प्रसार
सम्पादक की ओर से
सन्तों का इस धराधाम पर आगमन लोक कल्याण के लिए होता है। उनकी प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय होता है। जीवन का परम लक्ष्य – ‘परमानन्द की प्राप्ति तथा दुःखों की अत्यांतिक निवृत्ति तथा इस के ज्ञान का प्रसार
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