अपने निकास, विकास, विनाश के अधिष्ठान को लक्षित करने का वाणी अमरवाणी कहलाती है। भेद ग्रंथियों को नष्ट करने वाली लिनि अमरवाणी सद्ग्रंथ कहलाती है। सद्ग्रंथ के अनुगामी को पन्थी तथा पथियों के समूह को पन्थ कहा जाता है। ‘अमरवाणी’ ग्रंथ तथा पंथ का जीता जागता आदर्श रूप संत कहलाता है। स्वयं संत ही वाणी रूप होकर ग्रंथ तथा पंथ का रुप धारण करता है। संत ही निज मत अनुगामियों को क्लेश, कर्म तथा कर्मफल संस्कारों से मुक्ति प्रदान करता है। ऐसे ज्ञान स्वरुप संत को अवतरित हुए चिरकाल व्यतीत हो गया है। इसी से जीव अज्ञान के कारण भ्रमित हो क्लेश कर्म आदि में फंसता जा रहा है। ऐसे में जीव, संत स्वरुप लिखित वाणी मय ग्रंथ के अनुगामी बनें तो निश्चय ही अज्ञान से छुटकारा ले सकते हैं।
साधु श्री निश्चलदास जी के शब्दों में :
जेती बानी बैखरी, ताको अलम पिछान ।
हेतु मुक्ति को ज्ञान लखि, अद्वै निश्चय ज्ञान ।।
समस्त भाषाओं में संत प्रतिपादित ग्रंथों का सारमय प्रयोजन अज्ञान से छुटकारा पाना है। अज्ञान से छुटकारा ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। ज्ञान अद्वितीय जानकारी को कहते हैं। जड़ चेतन को ‘एक मानना’ भूल है, ‘अज्ञान’ है, ‘जीवत्व’ है। देह ‘नश्वर है यह जड़ देह पहले भी नहीं थी, बाद में भी नहीं रहती। यह तो केवल बीच के काल में ही भासती है। जैसे मृगतृष्णा का जल पहले भी नहीं था। जानने के पश्चात भी नहीं रहता चाहे दीखता भी रहे। ऐसे ही यह मृगतृष्णावत भासती है। यह मिथ्या मात्र है। केवल दृष्टि काल में ही भासती है। देह के विकार- ‘जन्म, अस्ति, वृद्वि, क्षय तथा नाश आदि’ देह को देखने वाले द्रष्टा या जानने वाले ज्ञाता में नहीं होते। यह द्रष्टा-ज्ञाता तो असंग ही रहता है। देहादि जगत का तो नाश हो जाता है परन्तु इनके नाश को जानने वाला ज्ञाता अविनाशी ही रहता है। देहादि तो विकार को प्राप्त होते है। पर यह ज्ञाता निर्विकार रहता है। देहादि आकार नाश को प्राप्त होते हैं। पर ज्ञाता निराकार होने से अजर अमर रहता है। निराकार ज्ञाता बहुत से तो हो नहीं सकते। अतः यह ज्ञाता ही सर्वस्व है। मैं भी, तू भी, सर्व भी। सब ज्ञाता-ज्ञाता एक ही है।
हम तेरी चाह में ए यार वहीं तक पहुंचे।
होश ये भी न जहां हैं कि कहां तक पहुंचे।।
अर्थात् ब्रह्मविद् ब्रह्मेव भवति । केवल इस सवज्ञाता को विशेषणों से व्यक्त करने का प्रयास किया जाता है । जानने वाले को कैसे जाना जाए?
‘विज्ञाता केन विजानियात’। (वृहदारण्यक उपनिषद)
इसी ज्ञाता को द्रष्टा, असंग, अविनाशी, निर्विकार, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वस्व, मैं, तू, सत्-चित्-आनंद, घन आदि नामों से पुकारा जाता है, ऐसा सद्सत सद्ग्रंथ प्रतिपादित करते हैं। जो व्यक्ति ऐसे संतों या ग्रंथों को मनु रुप (शरीर रुप) आकार रुप देखते हैं। वे भ्रमित है, अज्ञानी है। ये अज्ञानी जैसे स्वयं को देह रुप देखते हैं। वैसे ही सन्त तथा ग्रंथ को भी देह रुप ही देखते हैं। ये ‘देहधारी’ अन्धे ही हैं। इनके पास ‘ज्ञानदृष्टि’ का नितांत अभाव है। इसीलिए इस संसार में भी महादुःखी रहते हैं। तथा पानी में जाकर भी यमराज की यातनाएं सहते हैं।
सन्त मनुष कर जानते, ते नर कहिए अंध ।
महादुःखी संसार में, आगे जम को फंद।।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- ‘हे अर्जुन । मूढ़ लोग मनुष्य के अधिष्ठान स्वरुप परम अविनाशी को नहीं जानते जिसमें सर्वभूत भासते हैं।
अवजानंति मां मूढा मानू तनुमश्रितम् ।
परमभावं मां न जानंति, ममभूत महेश्वरम।।११।६
ऐसे ही ग्रंथ के प्रयोजन रुप चित्-जड़ ग्रंथि भेदन को समझकर ग्रंथ पूजा, ग्रंथ पाठ में लगे रहते हैं।
कहा ग्रंथ गण के पढ़े, किन कर्मो के कीन।
चित्त-जड़ ग्रंथि प्रबोधिनी, धी जब उर प्रगटीन ।।
हम समय-समय पर जो पत्र जिज्ञासुओं को लिखते रहे हैं, उनमें से कुछ पत्रों को श्री घनश्याम शर्मा ने संग्रहित करने का प्रयास किया है। इन पत्रों में चित्- जड़- ग्रंथि – विवेक विषय पर लिखे गए पत्रों को चुनकर ‘प्रसादम्’ पुस्तक का रुप दिया गया है ।विषय को श्रृंखलाबद्व रखना, मूल साधुक्कड़ी भाषा को न छोड़ना, चित्- जड़ग्रंथि भेदन रुपी प्रयोजन को स्पष्ट करना इस ग्रंथ की विशेषता है ।शर्मा जी ने अपने विवेक से स्वल्प अक्षरों को सहज, सरल, सरस शब्दों में तथा सारगर्भित वाक्यों में अमर सदेंश स्वरुप ‘प्रसादम्’ पुस्तक भेंट की है। निश्चय ही पाठक वृंद इस ‘प्रसादम्’ को ग्रहण कर कृतकृत्य हो जाएंगे।
कुछ ऐसा अपनी आंखों में, बस जाता है नूरे हुस्ने अजल।
हर वक्त निगाहों में यकसां, एक मोहिनी मूरत रहती है।