Vichaar geeta

admin

13 April 2017

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प्रस्तावना

सन्तों का इस धराधाम पर आगमन लोक कल्याण के लिए होता है। उनकी प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय होता है। “जीवन का परम लक्ष्य -परमानन्द की प्राप्ति तथा दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति तथा इस के ज्ञान का प्रसार तथा अज्ञान समाप्ति”-उनकी प्रत्येक क्रिया इस प्रयोजन से होती है।

जिस प्रकार गुड़ की डली में हर तरफ़ मिठास ही मिठास भरी है तथा मिठास के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, उसी प्रकार सन्त शिरोमणि स्वामी विचारानन्द जी की प्रत्येक क्रिया का एक मात्र प्रयोजन अज्ञान -अंधकार की निवृति है तथा इस के अतिरिक्त अन्य कुछ नही।

अनादि काल से जीव, जगत में क्लेश प्राप्त कर रहा है। सुख के बाद दुःख तथा दुःख के बाद सुख का चक्र उसे व्यथित किये रहता है। जिस व्यवहार से वह सुख प्राप्ति की आशा करता है, वही व्यवहार उसे दुःखानुभूति कराता है। जन्म रूपी सुख का अन्त उसे मृत्यु रूपी दुःख के रूप में मिलता है। यही नश्वरता जीव के तन, धन, स्त्री, पुत्र, विषय आदि को निगले जा रही है। इस विनाश से बचने के लिये वह, ज्ञान, विज्ञान और परोक्ष सत्ता का सहारा लेने का असफल प्रयास करता रहता है।

हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस विनाश से बचने के समाधान खोजे हैं। परन्तु वे समाधान रूपी अनेक ग्रन्थ जन साधारण की भाषा में नहीं हैं। उन ग्रन्थों की विशाल संख्या को देखते हुए, उनके अभिप्राय को समझ पाना और भी कठिन हो जाता है।

हम कृतज्ञ हैं महर्षि वेद व्यास जी के जिन्होंने अनेक ग्रन्थों का मन्थन कर पंचम वेद महाभारत की रचना की और इस पंचम वेद के एक अध्याय का नाम श्रीमद भगवत गीता है जो सर्व उपनिषदों का सार रुप है। यह ग्रन्थ हमें महर्षि वेद व्यास जी का वरदान रूप है। हम कृतज्ञ है, सन्त शिरोमणि स्वामी विचारानन्द जी के, जिन्होंने ‘जगत मिथ्या’ सिद्धान्त प्रतिपादित कर इस ग्रन्थ के सरल अर्थ कर हमें अनुगृहीत किया है।

श्रीमद भगवदगीता का मूल ग्रन्थ भी बहुत सी दुनिया कण्ठ किये हो है और बहुत महात्माओं ने इसके श्रेष्ठतम अर्थ भी किये हैं किन्त महाराज जी द्वारा किये गये अर्थ, सरल भाषा में सटीक रुप से किये हैं। जीविकोपार्जन की व्यस्तता, विषयासक्ति के कारण बुद्धि मन्दता तथा पर मतान्तर की बहुलता से फ़ैले मतिभ्रम के कारण, जीवन के परम कर विमुख हुआ मनुष्य भी इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्त को सहज दी समझ लेगा।

अतः स्वामी विचारानन्द जी महाराज (श्री कामाख्या मन्दिर, तपो भमि आश्रम, परवाणू, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश) की प्रेरणा तथा आदेश पर, यह पुस्तिका प्रस्तुत है। महाराज जी के श्रीमुख से उद्भूत श्रीमद भगवद्गीता सरलार्थ को, जन मानस की भाषा में लिपीबद्ध करने का प्रयास है आशा है इस अनुपम ग्रंथ से साधारण जन मानस को मार्ग की ओर आगे बढ़ने का सुअवसर मिलेगा।

मुमुक्षु जनों की सेवा में,

विपिन चन्द्र ‘ज्योतिर्मय’
२ नवम्बर २०१९

भूमिका

दुःखों से निवृत्ति सब चाहते हैं और इस हेतु सभी प्रयत्न रत भी हैं, इस निमित्त जागतिक सुखों की तलाश में भागम भाग लग रही है, जैसे शादी कर रहे हैं, स्त्री ला रहे हैं, बच्चा बना रहे हैं, मकान बना रहे है, लेकिन ये मन्द बुद्धि क्षणिक सुख पर ही सन्तोष कर रहे हैं, जब कि वे यह देख रहे हैं कि एक सुख से अनन्त दुःख मिलते हैं। जैसे शतरुपा और मनु के एक पुत्र के संकल्प ने पूरी रामायण को जन्म दिया। दशरथ कौशल्या के रुप में पुत्र की कामना के लिये तरह-२ के यज्ञ किये, पुत्र हुआ तो अपने सुख भूल कर उसी की सुख सुविधा लिये सब कुछ करने लगे। पुत्र से विछोह की बात होते ही प्राण त्याग दिये। इस प्रकार से लौकिक सुख के लिये, पूरी रामायण का चक्कर चलता ही रहता है, इस सुख प्राप्ति के चक्कर में जो धर्म अधर्म करते हैं, उसके कारण देह रुपी अगला जन्म प्राप्त करते हैं, फ़िर धर्म अधर्म करते हैं, धर्म अधर्म से राग द्वेष होता है, जो मिले उससे राग होता है और जो नहीं मिलता उसकी वजह से द्वेष होता है, राग द्वेष का कारण प्रतिकूल अनुकूल ज्ञान है, प्रतिकूल अनुकूल ज्ञान से भेद ज्ञान होता है। भेद ज्ञान अज्ञान के कारण होता है। अज्ञान ही मूल कारण है जो पुनः -२ देह चक्र में घुमाता है, अतः यह कर्मचक्र भली भान्ति परीक्षण करके देख लिया कि यह अज्ञान का कार्य सुख दुःख रुप चक्र प्रवाह से चलता आ रहा है। इस अज्ञान के कार्य दुःख रुप संसार चक्र को समझ कर कर्म भोगों से विरक्त हो जाना ही चाहिये। इस तरह से हम देखते हैं तीन तरह के दुःख होते हैं १ आध्यात्मिक २ आधिभौतिक ३ आधिदैहिक।

अतिवृष्टि, सूखा पड़ना, आग लगना, बिजली गिरनी, इन कर्मों से बचाव का उपाय के लिये मकान, सड़कें, पुल, बान्ध आदि बनाता है। खूब सारा धन कमा कर बड़े-२ बैंक बैलेंस बनाये और कर्म से शारीरिक दुःख दूर करने की बात आयुर्वेदिक एलोपैथिक आदि औषधियों से करता है, लेकिन इन लौकिक उपायों से निवृति नहीं होती। पुनः रोग घेर लेता है। मीमान्सकों ने फ़िर ढूढ़ा यज्ञ दान तप आदि नित्य नैमित्तिक कर्म। दो ही रास्ते ढूंढे कर्मका उपासना, इनसे तीन बातें होती हैं। धर्म अर्थ और काम, लेकिन “श्रीण मत्य लोके विशन्ति” जैसे लौकिक उपाय से दुखों की निवृत्ति नहीं. ऐसे निवृत्ति नहीं;

न्याय(गौतम महर्षि)
वैशेशिक(कणाद महर्षि)
सांख्ययोग(कपिल महर्षि)
अष्टांगयोग(पातञ्जली महर्षि)
पू० मीमान्सा(जैमिनी महर्षि)
उ० मीमान्सा (वेद व्यास महर्षि)
“धर्म, स्वर्ग मोक्ष के लिये कर्तव्य है। न कि धन के लिये”।
“धन संचय, धर्म के लिये कर्तव्य है न कि विषय सुख के लिये”
“विषय सेवन, जीवन निर्वाह के लिये कर्तव्य है, न कि इन्द्रियों के सुख के लिये”।
“जीवन आत्म साक्षात्कार के लिये है न कि क्षणभंगुर सखों के लिये”।
“आत्म साक्षात्कार होने पर देह तो रहता नहीं वह परमानन्द स्वरुप हो जाता है”।
“धर्म सुख के लिये, सुख जीवन निर्वाह के लिये और जीवन परमात्म प्राप्ति के लिये, जीवन आत्म साक्षात्कार के लिये”

इन दर्शना में श्री वेद व्यास कृत वेदान्त दर्शन मुख्य है इसका प्रयोजन आत्म ज्ञान और आत्म ज्ञान से मुक्ति । मुक्ति का तात्पर्य है जन्म मरण से मक्ति अर्थात देह का न होना। देह नहीं तो दुख नहीं। इससे पता चली कि जीव नित्य है और देह नश्वर है। जीव नाना कर्म करता है इससे नाना देहों को प्राप्त होता है। जैसा कर्म वैसी देह । जीव परमात्मा है, परमात्मा का प्रतिबिम्ब जीव है। कीट से लेकर ब्रह्मा तक सब देह धारी हैं इसलिये सब दुखी हैं। क्योकि जो अनादि अकृत्य परमात्मा है वह कृत्य नश्वर कर्मो से प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिये ये सब दुःख छोड़ने की इच्छा करते हैं। मगर वेदान्त दर्शन के अनुसार ये समझ में आ जाये कि प्रतिबिम्ब ही बिम्ब है तो द्वैत दृष्टि नष्ट हो जायेगी और सब क्रियायें मिथ्या हो जायेगी। वेदान्त दर्शन के अनुसार बताया हुआ मार्ग उपनिषदिय ज्ञान है जो व्यास जी ने वेदों का सार श्रीमद भागवत गीता के रुप में दिया है।

श्रीमद भगवत गीता अति रहस्यमय ग्रंथ है। वेदों का रहस्य उपनिषदों में और उपनिषदों का रहस्य श्री महर्षि वेदव्यास जी ने श्रीमद भगवत गीता के रुप में प्रदान किया है। यह ग्रन्थ संस्कृत में होते हुये भी इतना सरस और सरल है कि थोड़े अभ्यास से ही समझ में आने लगता है और इतना गम्भीर भी है कि जीवन भर अभ्यास रत रहने पर भी इसके रहस्यों का अन्त नहीं पाता। गीता वेदान्तीय ग्रन्थ होने के कारण जीव ब्रह्म की एकता ही जिसका प्रमुख लक्ष्य है। इस ग्रन्थ में अट्ठारह अध्याय जो तीन षटकों में विभाजित प्रतीत होते हैं प्रथम षटक “त्वं पद”, द्वितीय षटक में अध्याय सप्तम से द्वादश अध्याय तक “तत् पद” और तृतीय षटक में जीवात्मा और परमात्मा का एकत्व “असि” भाग का ज्ञान है।