पारस के स्पर्श से स्वर्ण होत तलवार,
तीन चीज छूटे नहीं धार, वार, आकार।।
पारस के स्पर्श से स्वर्ण होत तलवार,
तीन चीज छूटे नहीं धार, वार, आकार।।
ब्रह्म को जान लेने के बाद ज्यों देह दीखते हुये भी चेतन हो जाता है वैसे ही पारस के छूने से तलवार सोने की होकर भी अपना रूप, गुण और कार्य नहीं भूलती। इसी प्रकार पारस रुपी स्वामी जी के संसर्ग से हम जीव न रह कर ब्रह्म हुये। यह देह अध्यासी अपने भोगों को भोगती है किन्तु साक्षीत्व बोध संसार में कमलवत रहते देह इन्द्रियादि क्रियाओं को करते हये भी निर्लेप रह जाता हैं। जैसे स्वप्न में देखा हुआ दृष्य, जागृत काल में भासता नहीं और तैसे ज्ञानी स्वप्न की घटनाओं को मिथ्या जान उनका विचार नहीं करते, वैसे ही ज्ञान रुपी पारस के छू जाने से जगत के दीखते हुये भी उसमें कर्तापन, व्यवहार और आकार प्रतीत होते, वह अलिप्त रह जाता है। स्वप्न में, स्वप्न का शेर पीछे दौड़ा और मुझे खा गया और पेड़ के नीचे बैठ गया, यदि वह मुझे खा गया तो कौन शेर को देख रहा है। यहाँ मैं स्वप्न द्रष्टा हो कर चेतन रुप से शेर को देख रहा हूँ और मुझ में कोई परिवर्तन नहीं आया मैं तो केवल द्रष्टा मात्र ही रहता हूँ और स्वप्न का शेर भी मैं, जिसे खाया वह भी मैं और जिसने देखा वह भी मैं । इसलिये द्रष्टा सब कुछ करते हुए भी सभी क्रियाओं से अलिप्त रहता है। स्वामी जी भी दिखते तो देह है किन्तु होते ब्रह्म ही उनका व्यवहार चेतनमय ही रहा और अपने मूल लक्ष्य को भूले बिना सदा देखने वाले द्रष्टा स्वरुप रहे।
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