जिस प्रकार भगवान कृष्ण ने उग्रसेन जी को गद्दी पर बिठाया स्वयं सभी कार्य एक कुशल राजनीतिज्ञ, योद्धा व कूटनीतिज्ञ हो सम्भाले और सदा उन कार्यों को करते दीखते लेकिन स्वयं सदा उन से निलेप रहे । चाहे वह राजसभा हो या शत्रु राजा का दरबार या गद्ध क्षेत्र, सभी दायित्वों को सहज निभाया और सदा उनसे अलग लग रह कर, उन्हे एक आदर्श स्वरुप दिया। ठीक वैसे ही स्वामी जी कहाँ पर भी रहे अपने आपे को पूर्णतयः उसी परिवेष में समर्पित हो कार्य पूर्णता की और हर रुप से वहीं उसी स्थान के हो कर वहाँ आदर्श कायम किये। विद्यालय में एक कुशल मुख्याध्यापक, जिनकी कार्य कुशलता की चर्चा हर ओर थी; खेत में एक कुशल किसान जिन्होंने कम जमीन से अधिकतम फ़सल ले कर आस पास के किसानों को दान्तो तले उंगली दबाने को मजबूर किया। ज्योतिष और वेदान्त को तो नई दिशा दी। चिकित्सा का क्षेत्र भी ऐसा ही रहा । दूर गावों तक आपकी प्रसिद्धि एक कुशल डाक्टर के रुप में थी। किसी भी रोगी को यदि किसी ईलाज से लाभ न प्राप्त होता, उसका ईलाज भी आपके पास सम्भव रहा । लोकन इन सब से अलग स्वामी जी एक योगी की तरह द्रष्टा बन कर कार्य करते हुये प्रतीत हुये।